त्रिभुवन: क्या हम केकिस्टोक्रेसी के ख़तरों के प्रति सजग हैं? 

(त्रिभुवन वरिष्ठ पत्रकार, संपादक, टीकाकार और कवि हैं. यह लेख उनके फेसबुक पोस्ट से)

केकिस्टोक्रेसी (Kakistocracy) यानी वही हालात जिसकी तरफ दुनिया के कई विकासशील देशों की तरह हमारा देश तेजी से बढ़ रहा है. केकिस्टोक्रेसी यानी नीचे से लेकर ऊपर तक शासन व्यवस्था वह प्रणाली, जिसमें सबसे बुरे, अनप्रोफेशनल, नाक़ाबिल या सबसे अनैतिक लोग निर्णायक या फ़ैसलों को लागू करने वाले हों. यह केवल राजनीति या नौकरशाही का मामला नहीं है. यह देश की व्यवस्था को संचालित करने वाली पूरी प्रणाली से जुड़ा शब्द है. 

हमारी डेमोक्रेटिक इंस्टीट्यूशंस बहुत मज़बूत रहे हैं. लेकिन जो हमारा भारत कभी एक सशक्त लोकतंत्र था, अब संस्थागत कमजोरियों के संकेत दिखा रहा है. भारत एक वाइब्रेंट डेमोक्रसी रहा है. 

राजनीतिक तौर पर ही नहीं, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और सांस्कृतिक-सामाजिक तौर पर भी. यहाँ एक कुछ नहीं है. सब या तो द्वैत है, या त्रैत है या पंच, षड्, अष्ट है. हमारी तो दिशाएं भी दस हैं. लेकिन अब एक जैसा करने की जो बयार बह रही है, वह हमारी आत्मिक लोकतांत्रिकता की परंपराओं से मेल नहीं खातीं. 

न्यायपालिका, मीडिया और नौकरशाही जैसे प्रमुख स्तंभ, जो कभी अपनी स्वतंत्रता के लिए प्रशंसा पाते थे, अब स्वार्थी हितों से प्रभावित होने के आरोप झेल रहे हैं.

संस्थाओं का राजनीतिकरण: नियुक्तियां और कार्य अक्सर योग्यता के बजाय वफ़ादारी के आधार पर होते दिखते हैं, जिससे उनकी निष्पक्षता कमजोर हो रही है. इस आरोप के दायरे में कोई एक दल नहीं है. सबके सब हैं. हर किसी का अपने वफ़ादारों की तलाश है, प्रतिभाओं या क़ाबिल लोगों की नहीं. दाग़दार शोभा पाएंगे, विवेकवान वनवास. 

जवाबदेही की कमी: संदिग्ध रिकॉर्ड वाले मंत्री और अधिकारी अक्सर जांच से बच निकलते हैं, जिससे अक्षमता और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है. कोई एकाउंटेब्लिटी है ही नहीं. इधर वालों के साथ था तो बुरा था, उधर गया तो सुधर गया. उधर वालों के साथ था तो बुरा था, इधर आया तो निष्पाप हो गया. ड्यूबियस रिकॉर्ड वाल अक्सर ही बच जाते हैं. इन्एफिशएंसी आर करप्शन का जैसा बोलबाला पिछले कई दशकों से है, वह चिंता पैदा करता है. 

चुनाव जीतने के लिए कॉम्पीटेंस पर पॉपुलिज्म या कम्युनलिज्म को प्राथमिकता : भारत का लोकतांत्रिक ढांचा जनता को अपने नेता चुनने की शक्ति देता है. लेकिन चुनाव जीतने के लिए कॉम्पीटेंस के बजाय या तो पाँपुलिज्म का सहारा लिया जा रहा है या फिर कम्युनलिज्म या कास्टिज्म का. इनका तो नग्न नर्तन हर कोई देख रहा है. एक तरफ बेहतर समाज का स्वप्न देखने वाले जातिवाद को सीने से लगाए हैं तो दूसरी तरफ भारत के वैभव की बात करने वाले सांप्रदायिक विद्वेष को भड़काकर सनातन धर्म की उस सुरावली को उलट दे रहे हैं, जिसका आत्मिक रस "परहित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई" के स्वरों में इस देश की धमनियों में बहता है. यह भारतीय परंपरा है कि लोग किसे अपना शासक चुनें और किसे नहीं? लेकिन हम देखते हैं कि कई बार इस प्रणाली को नाकाम करने की कोशिशें होती हैं और इस काम में कोई पीछे नहीं है. केकिस्टोक्रेसी अगर कहीं आ रही है तो इसका मतलब भी साफ़ है : 

अनक्वालिफाईड लीडर्स : कई निर्वाचित प्रतिनिधि कानून बनाने के लिए आवश्यक शैक्षिक या पेशेवर योग्यता से वंचित हैं. अनक्वाइलीफाईड लोगों क हाथ में व्यवस्था हो जाती है तो वे भेड़ों की तरह एक ही तरफ हाँके जाते हैं. हमने पिछले कई दशकों की व्यवस्था को देखा है और हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं. कोई भी गिरावट अचानक नहीं आती. उसकी एक प्रक्रिया होती है. सांप्रदायिकता की भी एक प्रक्रिया है और कार्पारेटिज्म की भी. 

पहचान की राजनीति, बयानबाजी और लोकलुभावन वादों पर फलते-फूलते हमारे राजनेता आज हमें कहाँ ले आए हैं! देश की कोई चिंता नहीं, पर्यावरण की कोई फ़िक्र नहीं, इस दुनिया के किसी सरोकार से कुछ लेनादेना नहीं. बस आइडेंटिटी पॉलिटिक्स, रेटोरिक, पाँपुलिज्म और कम्युनल एजेंडा.

राजनीति का अपराधीकरण: एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) के अनुसार बड़ी संख्या में निर्वाचित प्रतिनिधियों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं. पॉलिटिक्स के क्रिमिनलाइजेशन की यह प्रवृत्ति सार्वजनिक विश्वास को कमजोर करती है और अनैतिक प्रथाओं को शासन में लाती है.

बेशर्म वंशवाद, रैंपेंट क्रॉनिज्म और क्रोनी कैपिटैलिज्म का अट्टहास: शक्ति के बढ़ते केंद्रीकरण ने वंशवादी राजनीति और पक्षपात को बढ़ावा दिया है. बेशर्म वंशवाद, रैंपेंट क्रॉनिज्म और क्रोनी कैपिटलिज्म का अटहास हर कहीं सुनाई दे रहा है. योग्यता के बजाय वंशवाद का पोषण खतरनाक है.यह लोकतंत्र के उलट है. राजनीतिक नेतृत्व का एक बड़ा हिस्सा परिवार की विरासतों से हर तरफ नियंत्रित है, जो योग्य और युवा नेताओं को हाशिये पर धकेलता है. एक आदमी बार-बार नाकाम होता है और क़ाबिल माना जाता है. एक आदमी दो बार नाकाम होता है और राजनीति से बाहर कर दिया जाता है. मेरिट को दरकिनार किया जा रहा है और डायनेस्टीज रूल कर रही हैं. हैरानी तो ये है कि एक आदमी जो सबसे अधिक इस बात के ख़िलाफ़ बोलता है, उसके चारों तरफ इसी तरह से आगे आए लोग हैं. डिज़र्व करने वाले युवा साइडलाइन किए जा रहे हैं और फैमिली लीगेसी वालों को तरजीह दी जा रही है. 

क्रोनी कैपिटलिज़्म: केकिस्टोक्रेसी से पहले ही जिस समय बड़े कॉर्पोरेट हित नीति-निर्माण को प्रभावित करते हैं और जनता की भलाई की कीमत पर योजनाएं बन रही हैं तब आप सोचिए कि केकिस्टोक्रेसी अपने पूरे आकार में आ जाएगी तो हालात क्या ही भयावह होंगे. क्रोनी कैपिटलिज्म हमारे समाजों के सारे तानेबाने को छिन्नभिन्न कर रहा है और वह भीतर और बाहर एक नग्न हिंसा के नख-दंत को और तीक्ष्ण बना रहा है. हमारे प्यारे देश में गांधी, तुलसी, नानक, बुद्ध, महावीर, ऋषियों-मुनियों, सूफीसंतों और भक्त समूहों की अहिंसा और तर्कशीलता जो धारा आत्मा का रस थी, जो उसे क्रॉनी कैपिटलिज्म कार्पोरेट इंट्रेस्ट्स के लिए पॉलिसी मेकर्स को दुष्प्रभावित करता है, जिससे लोककल्याण की भावना तिरोहित हो जाती है. 

सार्वजनिक संस्थाओं का कमजोर होना : स्वतंत्र निकायों का धीरे-धीरे कमजोर होना केकिस्टोक्रेसी का एक और प्रमुख संकेत है. केकिस्टोक्रेसी का एक अहम हालमाक्र यह भी है कि हमारे लोकतांत्रिक और स्वतंत्र संस्थाएं धीरे-धीरे कमज़ोर की जा रही हैं.

मीडिया पर दबाव: लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने वाला भारतीय मीडिया अब भयंकर दबाव से बहुत आगे निकल गया है. अब वह या तो को-ऑप्टिड है या फिर चुप है. यह आलोचनात्मक सवाल उठाने की गुंजाइश कम कर देता है. अब ऐसी क्रिटिकल क्वेश्चनिंग के लिए भी कोई रूम नहीं है, जो इंटेलेक्चुअल क्युरिअसिटी को इंडिकेट करती हो. अब मीडिया में या तो सत्तापक्ष के समर्थक बचे हैं या प्रतिपक्ष के. तटस्थ आवाज़ों के लिए न जगह बची है और न ही कोई संभावना. केकिस्टोक्रेसी ने शुरुआती दौर में सभी स्वतंत्र टीवी चैनलों और अख़बारों को ध्वस्त करने का काम किया है. बीबीसी और एनडीटीवी इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं. हालात ऐसे बना दिए गए हैं कि अब स्वतंत्र यूट्यूब चैनल अच्छे समझे जा रहे हैं, लेकिन उनका नियंत्रण कहाँ है? वे अगर इतना पैसा दे रहे हैं तो उसका स्रोत कौन हैं? और जिस भी दिन सत्ताप्रतिष्ठान को लगा कि यह चैनल उनके लिए ख़तरा बन रहे हैं तो इन्हें बंद करना या इनकी रीच घटाना उतना मुश्किल नहीं है, जितना टीवी चैनलों या अख़बारों को नियंत्रित करना. 

संसदीय गिरावट: संसद में बहसों की गुणवत्ता घट रही है. पार्लियामेंटैरी डिके की हालत यह है कि अब या तो बहसें होती ही नहीं हैं या फिर शोर  में डूब जाती हैं. दशकों से ऐसा हो गया है कि पार्टी के स्वर सरकार और उसके ताक़तवर लोग तय करते हैं और किसी भी सदस्य को अपनी स्वतंत्र आवाज़ की स्वतंत्रता नहीं होती. यह इधर भी है और उधर भी. सत्र बाधाओं, बहिर्गमन और व्यक्तिगत हमलों से प्रभावित होते हैं, जबकि राष्ट्रीय मुद्दों पर चर्चा नदारद है.

शॉर्ट टर्म गेन्स के लिए पॉलिसीज को शीर्षासन करवा दिए जाते हैं : वोट बैंक राजनीति और लोकलुभावन नीतियों पर ध्यान केंद्रित करने से दीर्घकालिक राष्ट्र निर्माण की उपेक्षा हो रही है. शॉर्ट टर्म गेन्स के लिए पॉलिसीज को शीर्षासन करवा दिए जाते हैं. आज राष्ट्रनिर्माण एक स्वप्न हो गया है और पार्टी या विचारधारा निर्माण का डंका बज रहा है. 

विज़नरी लीडरशिप कहीं दिखाई नहीं दे रही है : नेता अक्सर दीर्घकालिक समस्याओं जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और बेरोजगारी के बजाय चुनाव जीतने वाली नीतियों को प्राथमिकता देते हैं. एक सांप्रदायिकता ध्रुवीकरण को आधार बना रहा है तो दूसरा इसकी काट में जातिगत ध्रुवीकरण ले आता है और इस तरह इस महान् राष्ट्र की राजनीतिक प्रक्रिया हिन्दू धर्म से जुड़े लोगों के सरोकारों और सामाजिक न्याय के बीच घूमती है, जिसमें ग़ैरहिन्दू चिंताएं तिरोहित हो जाती हैं. यह विज़नरी लीडरशिप न होने का ही परिणाम है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, बेरोज़गारी, भुखमरी, कुपोषण, किसानों की बदहाली जैसी समस्याओं पर किसी का ध्यान ही नहीं है. न ही यह चुनावों में कहीं बहस का मुद्दा है. 

ध्रुवीकरण और विभाजन: धार्मिक, जातीय, अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक और क्षेत्रीय रेखाओं पर बढ़ती सामाजिक विभाजन की राजनीति दर्शाती है कि पोलैराइज़ेशन और डिविज़िवनेस ने समाज में वैमनस्य बहुत अधिक बढ़ा दिया है. जहां अनस्क्रप्लस लीडर पॉलिटिकल गेन के लिए सामाजिक और जातीय मतभेदों को एक्सप्लॉयट करने में जुटे हैं. अगर ठीक ऐसे हालात में लोगों ने केकिस्टोक्रेसी के ख़तरों को नहीं समझा तो हालात और बदतर होंगे. यह एक शब्द भर नहीं, भविष्य की एक पुकार है, जो हमें चेता रही है.

Dec 22
at
3:31 PM